A New Leaf

We need composure, stability and balance to lead our life peacefully. This poem is a narrative of a young man who learns composure and finds freedom from restlessness...... What had I done to my life?  Where did I lose my direction?  Waking up in the post sunrise hours I had lethargy written all over me ....... Read on the site for more....

स्थिरता Sthirta

जीवन केवल एक कर्म क्षेत्र है अभिनय निभाना केवल धर्म है...... ....... जो आया है उसको जाना ही होगा यह जान समझ जीवन जीना होगा.......

विध्वत्व होली Vidhvatv Holi

आया होली का रंगीला त्यौहार क्या उनका होगा रंगों से साकार क्या उनके सपनों को मिलेगा आकार क्या होली खेलने आएगा कोई उन संग क्या उन पर डालेगा आके कोई रंग

But Who Cared?

They dressed and behaved in dignity Riches or poverty didn’t mar their ingenuity Those people who lived with simplicity Riding a bike or going by foot They cared not what the world would think Playing with marbles, spinning tops and Ludo So many didn’t feel the need to learn karate or Judo

भारतीय प्रेम Indian Love

भारतीय प्रेम इस भारतीय प्रेम की परिभाषा ही कुछ अलग औपचारिकता दिखाते सुनाते न हमजोली एक दूजे के सहायक बन जीवन के अंतिम छोर तक अंधियारे की काली रात से उज्ज्वल भोर तलक साथी, हमसफ़र ही तो हाथ बटाएगा जब संतान जवान हो, दूर जा बसे वही तो है जो हर निवाले पर साथ निभाएगा बती बुझानी हो या फिर दही फ्रिज में रखनी हो गैस का सिलेंडर बदलना हो या चूल्हा बुझाना हो सुबह की चाय संग साथ बैठ अख़बार पढ़ना दूध वाले से बर्तन में दूध लेने से नल से बाल्टी भरने तक सब काम सहज हो जाता है, जब साथी अपना, संग हो गुडमार्निंग व गुडनाईट की औपचारिकता रहे न रहे हरि ऊँ व जय श्री कृष्णा, या फिर ख़ुदा की इबादत... धर्म करम के कार्य करते दोनों इक दूजे संग सिकीलधी

ये शरीर!

ये शरीर भी क्या शरीर ये शरीर भी कैसा शरीर कभी बना दर्द की दुकान कभी बनता दवा की दुकान इस के क्या गुण, क्या अवगुण कभी बनता सम्मान का मकान भुलेखे में डाल ह्रदय को ये बन जाता अहंकार का सामान छिड़ जाता सह मान अपमान इसको भाता खुद अपना गुणगान ये शरीर भी क्या शरीर ये शरीर भी कैसा शरीर सिकीलधी

वियोग

मॉं बाप का वियोग कम्बख़्त चीज़ ही ऐसी है, जग भर के रिश्ते हों चाहे जीवन में.... न कोई पिता सम्मान, न कोई मॉं जैसी है कभी शायद वो भी रोए होंगे इस वियोग वश आज हमारी बारी है, बिछड़ना लगता भारी है क्या कल की पीढ़ी भी सहेगी यह सब? कौन जाने यह वियोग किस किस पर भारी है सिकीलधी