कागज़ के टुकड़े

काग़ज़ के टुकड़े

कल शाम भाभी ने
मॉं की अलमारी को खोला

Sikiladi

कुछ यहाँ, कुछ वहॉं टटोला
कपड़े छॉंट कर फिर समेटे
एक एक दराज़ को खंगाला

drawers

और निकला क्या?
कुछ लिपटे, सिमटे, सफ़ेद से
काग़ज़ के टुकड़े……
जो समेटे थे यादों के क़तरे

ऊपर की दराज़ में छुपे छुपाए ये पन्ने
दास्ताँ कह गए बहुत दिनों की

कुछ तो किसी एक कोने से फट भी चुके थे
उन पर काली या नीली स्याही निखरी थी
मगर किन्हीं की स्याही को वक़्त निगल रहा था

slips of paper

लेकिन कुछ पन्ने आज भी शानदार थे
उन पे लिखी बातें …..
कह गई अनगिनत कहानियॉं

कुछ गीत पुराने, कुछ नुस्ख़े सयाने,
कहीं बिटीया की लिखी कविताएँ
और कुछ सास की यादों को समाए

Sikiladi

संग ही निकले कुछ पत्थर
कई रंग व आकार के थे

एक टूटी चेन गले की
शायद कुछ यादों को समेटे थी

button

एक बटन बड़ा सा…..
पापा के कोट का रहा होगा शायद
या फिर कौन जाने……
उसका भी कोई क़िस्सा रहा होगा

Sikiladi

वह इतर की हरी शीशी जास्मिन वाली
और एक छोटी टोकरी में रखीं लिप्सटिक
जिन के रंग कबके रूठ चुके थे
पापा जो जग से चल उठे थे

lipstick

फिर निगाह पड़ी जा उस गुलाबी काग़ज़ पर
वह चिट्ठी थी जो पोती ने लिखी थी दादी को
जब पहला पत्र लिखना थी सिखी

बिखरा पड़ा है अब मॉं का बिस्तर
यादों को कहॉं रखें सम्भाल कर

Sikiladi

सोच में पड़ गई भाभी बेचारी
मॉं तो उसकी सास थी
किन्तु उसकी यादों की प्यास थी

अब वह पन्ने क्या हैं किसी काम के?
क्या अब यह सब वह अपने बच्चों को दे दे?
या फिर भाई मेरे से सलाह माँग ले?

यह लिपटे, सिमटे काग़ज़ के टुकड़े
जाने कितने अरमान हैं बिखरे।
सिकीलधी

Photo Credits : Google Images

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