आस के धागे

आस के धागे

आस के धागे, ख़ून से टपके

ज़ख़्मी जिगर से बहते ही गए

एक दूजे से लिपट कर रोऐं

हाल-ए-दिल भी सुना सकें

इसी कोशिश में बेमुरवत

और भी उलझते चले गए

है कौन वह अपना जो

उलझनों को सुलझा सके

गिरह जो लग गईं हैं उनमें

उन को आ सुलझा सके

ये धागे जो लहूलुहान हैं

कमबख़्त कसते ही जाते हैं

इस क़दर बहते बहते तो

रक्त भी सफ़ेद पड़ जाता है

यह बेमानी आस के धागे

अपने ही लहु के रंग रंगके

सूखने ही न पा सके हैं

ख़ुदा जाने किस ज़ख़्म को

पनाह दिए जा रहे हैं

सिकीलधी

5 thoughts on “आस के धागे

  1. है कौन वह अपना जो
    उलझनों को सुलझा सके
    गिरह जो लग गईं हैं उनमें
    उन को आ सुलझा सके।
    सत्य को दर्शाती बेहतरीन रचना।👌👌

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