तराज़ू के पलड़े

तुम कहतीं थी न मेरे होने से तुम्हें अच्छा लगता है 

फिर अब! अब क्या हुआ जो वहीं संग बोझ लगता है 

तुम नन्ही सी थी तो कभी तुम्हारा हाथ पकड़ 

और कभी तुम्हें गोद में उठा मैं चलती थी

ऐसा न था कि तुम बिल्कुल हल्की सी थी

तुम्हें उठा मैं बहुत थकती थी 

मगर ममता की मारी मॉं, कभी आह न भरती थी  

प्रसन्नता पूर्वक तुम्हारे बचपन का बोझ फूल समझती थी

किन्तु आज मेरा हाथ पकड़ चलने पर तुम अहसान जताती हो

तब लगता है, प्यार क्या केवल मॉं का संस्कार है 

ईश्वर करे वह दिन न आए जब तुम्हें सहारा दे मुझे उठाना पड़े 

या फिर मेरे कारण अपने काम से विश्राम लेना पड़े 

नहीं चाहती तुम्हारे व्यस्त जीवन में रुकावट बनना 

न ही तुम्हारी ऊँची उड़ान में बाधा बनना 

मगर जब मुझ पर खीज जताती हो

तब याद करना, मत भूलना कि आज भी तुम्हारी माँ हूँ 

वही मॉं जो तुम्हारे नन्हे पैरों को चूम सुकून पाती थी

तप पैंपर नैपी नहीं होती थी, फिर भी तुम्हें गीला न रखती थी

आज भी हर कोशिश करती हूँ….

तुम्हारी सेहत व सहूलियत का दम भरती हूँ 

फिर भी तुम्हें पहले जैसा खुश नहीं रख पाती हूँ 

जाने तुम्हारी आशाएँ कब इतनी बड़ी हो गई 

जाने तुम्हारे तराज़ू के पलड़े किस धातु के हैं 

जिन में मेरी ममता दिखाई ही न देती है 

सिकीलधी

Leave a comment