औरत अपना सर्वस्व जिन पर क़ुर्बान कर जाती है, अक्सर वही उसके असीम दुख का कारण बन जाते हैं ।
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कब! जाने कब!
बेटियाँ कब! जाने कब वह बड़ी हो जाती हैं कल की फुदकती बच्चियाँ सयानी हो जाती हैं नन्हे पैरों की छन छन पायल आँगन में राग सुनाती है छोटे छोटे हाथों से हम बड़ों को थामने लगतीं हैं कब! जाने कब वह बड़ी हो जाती हैं माँ की देखा देखी फ़ैशन थीं सीखतीं पर्दे पीछे … Continue reading कब! जाने कब!
हर लम्हा!
मैं!
दर्द की दास्तान!
इन्तज़ार/ Intezar
पूछो न!
पूछो न न पूछो तुम मुझसे मेरे दुखों का कारण सह न सकूँगी और तुम्हें कुछ कह न सकूँगी बस ख़ामोश निगाहों से दर्दे दिल को बयॉं करूँगी पाक आफ़ताब की ओढ़े आबरू ज़मीन में ही गढ़ सी जाऊँगी होंठ सीये भी एक अरसा हो चला लफ़्ज़ों ने कब का साथ छोड़ दिया बस ये ऑंखें हैं जो दर्पण बन मन का कह जाती हैं जो कहना ही न था जी रही हूँ बोझ लिए दिल पर डरती हूँ … बाँध टूट न जाए अब सब्र का बिखर न जाए ज़ख़्मी जिगर बह न जाए नयनों से धार चुप हूँ फिर भी कोलाहल है डर है कहीं फट ही न पड़े दुखती हर नफ़्स जो दबाए हूँ सिकीलधी
औपचारिकता!
अब दुनिया के दस्तूर और तकल्लुफ़ निभाने पड़ेंगे ….. ओढ़ औपचारिकता क चादर फिर एक बार…… कई पुराने रिश्ते जहां वालों से निभाने पड़ेंगे …..
वो यादें!
वो यादें जो सिमट तसवीरों में, मुझसे बातें करतीं हैं ...... कुछ दर्द का एहसास देतीं हैं , कुछ लबों पे मुस्कान बनती हैं........