जब वह लौट के घर को आई मन के भाव मैं समझ न पाई न फूलों से स्वागत, न कोई ढोल बस! कई मिनटों तक गले लग पाई न वह रोई, न मैं रोई! मगर हम दोनों हंस भी न पाईं अपनी ही आयु से कहीं बड़ी हो चली थी मेरी प्यारी सी गुड़िया जाने कैसे भाव छिपा रही थी उसके लौट आने से एक अजीब सी चुप्पी थी छाई अश्रु भी आँखों से खेल रहे थे लुकन छुपाई हर कोई अपने भावों से झूझ रहा था शायद सन्नाटा इतना भारी कि मैं चाह कर भी सिसक न पाई जब वह लौट के घर को आई सभ्य समाज की असभ्य बेड़ियाँ तोड़ आई ह्रदय था घायल, फिर भी सुकून था अपनी बिटिया को सुरक्षित मैं वापस लिवा लाई उसे निकाल आत्मकामी अत्याचारिता से चैन के चंद श्वास तब मैं ले पाई अभिमान हुआ स्वयं अपने इस कार्य पर समाज के मानदंडों को तोड़, सिर उठा जी पाई समाज के ठेकेदारों, मैंने सुनी सगरी जग हंसाई देती हूँ हर एक की बेटियों की दुहाई है परवाह आज भी अपनी ही गोद की ज़ख़्मी ही सही, ब्याहता बेटी घर लौट आई उसके कुशल की कामना सदा मेरे मन समाई उसकी हर पीड़ा से मेरी आत्मा बिलबिलाई बड़े ही संस्कारों से की जिसकी परवरिश उसी द्वारा अब संसार को नए संस्कार दिखा पाई बेटी अपनी अपना ही स्वाभिमान है लोगों तज न देना उसे जान कर अमानत पराई बोझ न समझो उस अपनी जनी को समय रहते हाथ बड़ा कर बनना उसके सहाई जली कन्या से सुरक्षित कन्या भली होती है मृतक पुत्री से घर लौटी पुत्री भली होती है पीड़ित ब्याहता से कुशल बिटिया भली … Continue reading वह लौट के घर को आई!
बिटिया
खुशाली!
बेटी मेरी अपनी हो या फिर किसी और की- बेटी ही होती है । यह कविता मेरी सखी अरूना की ओर से उसकी बेटी खुशाली के लिए एक प्यारी सी भेंट । जन्मदिन मुबारक हो खुशाली ।
बलात्कार
सभ्यता असभ्यता जाने कैसे जाने अन्जाने रूप में हमारे ही हाथों गेंद की तरह उलझती दिखती है...........
मॉं से मायका (Maternal Home)
मॉं है तो मायका भी है मॉं है तो मन महका भी है वह प्यार दुलार व दुआ की बहार वो घर बुलाने के बहाने हज़ार वो हर फ़रमाइश का पूरा करना वो घंटों बैठ कर बातें करना मॉं है तो मायका भी है मॉं है तो मन महका भी है वो मायके जाकर सब … Continue reading मॉं से मायका (Maternal Home)