ये शरीर भी क्या शरीर ये शरीर भी कैसा शरीर कभी बना दर्द की दुकान कभी बनता दवा की दुकान इस के क्या गुण, क्या अवगुण कभी बनता सम्मान का मकान भुलेखे में डाल ह्रदय को ये बन जाता अहंकार का सामान छिड़ जाता सह मान अपमान इसको भाता खुद अपना गुणगान ये शरीर भी क्या शरीर ये शरीर भी कैसा शरीर सिकीलधी
अपमान
देशद्रोह
The disturbances in Delhi on the Republic Day of India was a shameful act by those who spread the devastation and terror. This poem is inspired by the situation.
बलात्कार
सभ्यता असभ्यता जाने कैसे जाने अन्जाने रूप में हमारे ही हाथों गेंद की तरह उलझती दिखती है...........
औकात याद दिला दी
अच्छा किया जो तुम ने
औक़ात याद दिला दी मुझ को
जानती थी जिस घर को अपना
उसी की बन्दी बन कर रह गई