
मौत का सेहरा
कितना शांत, कितना ठहरा
लगता था उनका चेहरा
बाबा ने हम सब से दूर हो
जब पहना था मौत का सेहरा
अपने नए घर जाने की
उनको इतनी जल्दी थी
हम से मिल कर, सुनी भी नहीं
बात जो हम को कहनी थी
माँ का दिल वीरान हो गया
साथी उनका दूर हो गया
साठवीं सालगिरह मनाएँगे उनकी
सपना हमारा यह चूर हो गया
उस नए घर जाकर भी उनको
याद हमारी आती थी
जब तन्हाई होती थी
वो हमसे मिलने आते थे
ख़त्म हुआ यह खेल भी अब तो
नहीं होता है मेल भी अब तो
शायद वो मसरूफ़ हो गए
तभी तो भूल गए हैं सब को
जिस्म नही मगर निश्चित ही
हम याद आते होंगे,
क्या पता
खुशियों को देख
मुस्कुराते होंगे,
और रोने पर
वे भी अश्क बहाते होंगे।
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Apne bahut sunder tareeke se iss kavita ko sampurn kar diya. Dhanyavaad.
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