कान्हा

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तोड़ के पिंजरे ,सभी सुनहरे

खुली हवा में, साँस पे पहरे
लाज लोक की छोड़ के सारी
ओढ़े  तेरी  चाह  के  सहरे
बंसी की धुन बड़ी रसीली
टीस सी दे जाती कटीली
श्वास है मध्यम, नैन अधखुले
याद साँवरे की हुई नशीली
ना मोहकता राधा की सी मुझमें
ना  ही  मीरा  सी  मैं  जोगन
ना रुक्मणी सी सहनशीलता
फिर भी समाया तू मन मन्दिर
हृदय के गहरे कोने में तू
बस गया श्याम सलोने रे तू
होंठ सिल गए कान्हा लेकिन
जो मुझे देखे समझे है तू
सिकीलधी

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