
सीखी न वह सखियों संग जाना
घूमना फिरना और कहीं सैर कर आना
उम्र बिताई परिवारजनों के पीछे
तरह तरह के रिश्ते थे सींचे
घर की चौखट मंदिर बन गई
सास ससुर-मॉं बाबा बन गएSikiladi
सेवा की बहुत ही जी जान से
ऑंसू छिपाए सगरे जहांन से
पती को माना सदा परमेश्वर
मगर वह उसे देवी मान न पाए
पीहर जाने को जी था तरसता
धीरे-धीरे भूल गई मायके का रास्ता
याद बहुत आती थी मम्मी पापा की
मगर वह मिलने जा ही न पाती Sikiladi
क़ैद में पल रही बुल बुल की भाँति
सह गई, कभी की न कोई क्रांति
पकाती, परोसती, धोती, सहेजती
सुघड़ बहू वाले सारे कर्तव्य निभाती
परन्तु दुख होता दिल के छिपे कोने में
जब कभी भी किसी से कोई प्रशंसा न पाती
ताने सुनते, उलाहना सुनते पत्थर की मूरत भाँति
न की मनमानी ,होंठ सी लिए, घर की चाहते शांति
Sikiladi रानी बिटिया जो पली लाखों लाड़ से
अपने ही अपनों संग चार रात बिताने न जा पाती
एैसा न थ कि उसके परिवार में रिवाज अलग था
उसकी ननद रानी हर वर्ष मायके थी आती
और भाभी भी तो अपने मायके थी जाती
मगर मीरा के ही हिस्से परिवार की तंगदिली थी आई
एैश आराम में पली थी, पर एक एक रुपए को तरस जाती
Sikiladi बच्चों को पाला, घर को सँभाला
अन्नपूर्णा बन सबसे अंत में लेती निवाला
फिर भी ऐसा क्यों लगता कि वह है पराई
अपना सर्वस्व न्योछावर कर भी खिल न पाई
उसने जाने कितने रिश्तों की की थी बुनाई
और चुन चुन कर उधड़ते रिश्तों की की तुरपाई
मगर अब उम्र का तक़ाज़ा है
यौवन शेष न रहा, बच्चों के भी पर लग गए
अब चाहती है खुली हवा के झोंकों बीच
Sikiladi सखियों संग कुछ पल बिताए
कुछ उनकी सुने व अपनी भी सुनाए
बेताहाशा ज़ोर से हँसे व खिलखिलाए
कभी सब बात से बेख़बर हो
कोई मैटिनी शो देख आए
किन्तु अब न तो कोई थियेटर जाता
तिस पर काफ़ी डेट का है ज़माना
लेकिन घर वाली चाय की चुस्की का आनंद
बाहर बैठ चाय पीने से भला कैसे आता
फिर न ही उसकी सखियाँ कोई शेष है
अब तो बस यादों के ही अवशेष हैं Sikiladi
कुछ तो परमात्मा को हो गई प्यारी
कुछ पर उसकी भाँति परिवार पड़ गए भारी
सीखी न वह सखियों संग जाना
घूमना फिरना, और कहीं सैर कर आना
सिकीलधी
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आज के #EmbraceEquity वाले समय भी कुछ ग्रहणियाँ ह्रदय में अश्रु छिपा बाहरी तौर से मुस्कुराती दिखती है । यह कविता उन स्त्रियों को समर्पित है जिन्होंने खुद को कहीं खो दिया है ।
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