
किताबों के ढेर, ढेर सारी किताबों के ढेर। कुछ ऐसा ही दिखता था जब विमल अपनी नन्ही सी आयु में अपने पिता का किताबें जमा करने का शौक़ देखती थी। वह ढेर जिसे वह ढेर कहती थी, बहुत ही सलीक़े से बैठक की बड़ी सी कॉंच की अलमारी में सहेज कर रखीं पुस्तकें थीं ।
अचरज की बात थी कि जिन किताबों को रतनचंद ने बहुत चाह से ख़रीदा व सहेजा था, वह उन को कभी पड़ न पाए । देश विभाजन के उपरांत जब वे अपने परिवार सहित भारत के हिस्से- बम्बई में आ बसे तब अंग्रेज़ी भाषा को शालीनता का दर्जा दिया जाता था । वहीं विदेशी लोग जिन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के दिलों में दरारें उपजा कर देश का विभाजन करवा दिया, दुर्भाग्य वंश उन्हीं की सभ्यता, वेशभूषा व भाषा को तब भी सम्मान का प्रतीक माना जाता था, और आज भी माना जा रहा है ।
रतनचंद भी उसी ब्रिटिश तौर तरीक़ों को उच्च रहन सहन का चिन्ह मानने लगा था। आख़िर उस क़मीज़,पैंट, सूट-बूट की शान के आगे धोती कुर्ते वालों को क्या इज़्ज़त मिलती । अकेले केवल वह ही नहीं, भारतीय जनता आम तौर पर ब्रिटिश से घृणा करते कब उनकी नक़ल करने को जीवन जीने का ढंग मान बैठी पता ही न चला।
अब तो वह भी घर में मेज़ व कुर्सियों पर सपरिवार भोजन ग्रहण करता था । रसोईघर के पाटलों पर बैठ खाने की आदत छूटने लगी थी । उसने पत्नी को सिखाया की चाय गिलास यॉं कुल्हड़ में न परोसे। उसने टी- सेट ख़रीदा था और अब उसके घर आए अतिथियों को केतली से प्याले में चाय डाल कर दी जाती थी ।
एैसी विदेशी सभ्यता के आकर्षण के ही कारण उसने अंग्रेज़ी भाषा में लिखित शेकस्पियर, चार्लस डिकिन्स जैसे नामचीन लेखकों की किताबों को ख़रीद अपने घर में सजाना आरम्भ किया । उसे तो अंग्रेज़ी भाषा पढ़ने आती नहीं थी लेकिन एक आशा कर बैठा कि उसके बच्चे अवश्य उन किताबों का लाभ लेंगे ।
जैसे जैसे बच्चे बड़े होते गए, अपने जीवन में व्यस्त होते गए। उनके लिए भी भारत अब एक नया देश बन चुका था और नए रंग ढंग, नए काम काज ने उन्हें व्यस्त कर दिया था। रतनचंद चाहता रहा कि इन्दर एवं सुन्दर अथवा दूसरे बच्चों में से कोई तो वे अंग्रेज़ी पुस्तकें पढ़ कर उसको सुनाएँगे मगर तीनों बेटों ने कभी ऐसा करना आवश्यक न समझा ।
विमल को जब पिता की इस निराशा का अहसास हुआ तो उसने पिता के लिए शेकस्पियर पढ़ने की कोशिश की । मगर, यह क्या? शेकस्पियर की अंग्रेज़ी तो आम बोली जाने वाली अंग्रेज़ी से बहुत अलग थी। दो पन्नों से ही वह जान गया कि यह किताबें उसके लिए व्यर्थ है और हताश हो बिटिया को किताब बन्द करने को कहा ।
उसकी लालसा शान्त हो चली लेकिन सन्तुष्टि न मिली। मन ही मन उसने ईश्वर से अगले जन्म में अंग्रेज़ी भाषीय बन जन्मने का आशीर्वाद माँगा । विमल और उसकी छोटी बहने कामिनी व कमल आजीवन पिता का वह निराश चेहरा भूल न पाईं । बेटियों को बेहद दुख हुआ कि सिन्ध छोड़ हिन्द आने पर उन्होंने अपना हिन्दू अस्तित्व तो बचा लिया मगर अपनी सिन्धी भाषा छूटती नज़र आई। भारत के संविधान में सिन्धी भाषा को कई वर्षों तक पहचान न मिलने के कारण उनकी भाषा किसी भी पाठशाला में नहीं पढ़ाई जा रही थी। अंग्रेज़ी सीखना भी आसान न था क्योंकि वह तो समृद्ध लोगों की भाषा बन गई थी।
ऐसे में जो सिन्धी परिवार जिस भी प्रांत में जा बसा, वहीं का होकर रहने लगा और वहीं की वेशभूषा और बोलचाल को अपनाने लगा ताकि इस नए भारत में अपनी पहचान भूल कर भी समा सके। बेहद दुखद बात है कि आज भी सिन्धी परिवार किसी एक प्रांत को अपना प्रांत नहीं कह सकते । जब प्रांत ही नहीं, तो उनके त्योहारों को क्या पहचान मिलेगी एवं उनके इष्ट देव को क्या सम्मान मिलेगा । पूरे भारतवर्ष में झूलेलाल साईं का नाम बस “लाल मेरी पत….” के सुरों पर नाचने के लिए ही सुनाई देता है ।