आँखों में नमी हो कर भी नहीं थी
बस एक वीरानापन झलक रहा था
वह खुद को सम्भाले, ख़ामोश बैठा रहा
जी चाहता था ऑंखें मूँद कर …
कहीं एक शांत कोने में जा बैठे
मगर, समाज का होकर….
सामाजिक स्वभाव रखना पड़ रहा था
आते जाते कुछ बहुत अपने
व कुछ औपचारिक बन्धु गण
उसके निकट आ शोक व्यक्त करते
कोई हाथ हाथों में ले मित्रता जताता
तो, कोई कंधे पे हाथ रख सांत्वना देता
कोई केवल हाथ जोड़, बिना किसी शब्द…
अपने वहाँ होने का अहसास दिलाता
लोगों के बीच वह उतना अकेला तो नहीं था
किन्तु जी चाहा अपनी हमसफ़र को बताए
देखो तुमको विदा करने कितने लोग आए
फिर एक टीस सी उठती, अब वह क्या सुनती
वह तो बेवफ़ा निकली
बीच राह अकेले छोड़ उसको
वह अपनी राह पर जा निकली
मन में दर्द के साथ एक सुख भी मिला
जब उसे बड़े सम्मान संग शैय्या पे ला रखा
चेहरे पे एक अलग सुकून सा दिखता था
शायद अब वह तकलीफ़ मुक्त हो
राहत की मौत पा चुकी थी
जी चाहा दौड़ कर थाम लेता फिर एक बार
मगर समाज की सीमा के है कुछ शिष्टाचार
दूर बैठे ही देखता रहा उसका कई कंधों पे आगमन
और फिर जब पंडित जी ने बुलाया
वह आया सबसे आगे, आख़िर वह पत्नी थी उसकी
कॉंपती उँगली से उसने अंतिम बार उस अपनी का
तिलक लगाकर माथा सजाया
कुछ बूँद गंगाजल मुख में डाल
अब अंतरात्मा हो रही बेहाल,
सोचा काश वह उसका उपवास खोलता
जल पिला अपने हाथों से, उसके धर्म का मान रखता
मगर वह जो चिर निद्रा सो रही…..
मौत में भी आकर्षित लगती रही ….
कितना सुंदर लगता है उस पर शृंगार
जिन हाथों से कभी पहनाई थी वरमाला
उन्हीं हाथों से अपनी पत्नी को विदाई वाली पहनाई माला
हाथ साथ छोड़ रहे थे और पुत्र का सहारा लेना पड़ा
जीवन संगिनी जिसने जीवन का साथ निभाया था
अब वह उसकी देह को पंचतत्वों के समर्पित कर आया
विवाहित जीवन का उसने निभाया अंतिम संस्कार
शांत चेहरा तो सबने देखा….
मगर, अंदर ही अंदर एक कोलाहल छाया
अब तो उसे अकेले रहना आता ही न था
घर की हर दीवार, हर कुर्सी पर दिखता
उसको अपनी उस पत्नी का साया
जो चल बसी उसे कर खुद से पराया