बर्दाश्त की हद निकल चली
आत्मा को टटोलती ………
विचारों की श्रंखलाएँ ……
उसके वृद्ध शरीर को ……
एक बेहूदा सा नाच नचातीं
बाहर की होती काश आवाज़ें
तो हाथों से कान ढाँके रखता
मगर ये कोलाहल भीतर से उभर
उसे विचलित करता हर पहर
यादें हैं कि बेधड़क उमड़ पड़ती हैं
आँखों को बंद करना भी विफल हुआ
वे बंद आँखों से कुछ अधिक ही झलकती
अंतरात्मा को झकझोर कर व्याकुल करतीं
अब करे तो वह क्या करे sikiladi
अपने ही अकेलेपन में अपना सहारा बन
खुद को स्वयं ही समेटता
अपने अतीत के बिखरे टुकड़े जोड़ता
वीरानेपन की चादर ओढ़ नेत्रों तक
स्वयं का मित्र व स्वयं का शत्रु प्रतीत होता
पीड़ा का अहसास होने पर
वह स्वयं ही अपनी धड़कन पे मरहम बनता
दर्द छुपाता रहता अपनों बीच आज भी
परन्तु उसकी ऑंखें से आह न दबी
आँसू बहा लेता होगा शायद कभी sikiladi
तभी तो नेत्रों तले दिखती वह नमी
पाला था जिन्होंने उसे बड़े लाड़ों से
उनका अस्तित्व तो कब का मिट चला है
उसकी छॉंव तले कभी थे जो पले व बढ़े
उनकी अपनी ख़ुद्दारी समाती न उसके क़रीब
याद करता है बीते दिनों की अकेले बैठ
सखा, मित्र, भाई, बहनें सब दिवंगत हुए
अब तकता है राह अपने बुलावे की मगर…
यह ईश्वर है कि पुकारता भी तो नहीं
रात में जब करवटों बीच पत्नी की याद सताती
और दिन के उजियाले में छोटी बहन भी न दिखती
नागिन सा डँसता अकेलापन, दुहाई है दुहाई
हे दुनिया के मालिक, क्या तुझे देता न दिखाई?
कब तक! कब तक कर सकता बर्दाश्त कोई
इतना अकेलापन कि सन्नाटा भी देता सुनाई
तड़प कर वह बौखला उठा, फीकी सी हँसी आई
यहाँ न कोई उसका अपना, सारा जगात है हरजाई
सिकीलधी
ह्रदयस्पर्शी पंक्तियां 👌👌👌
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धन्यवाद
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