
उसने कहा देख कर तुम्हें
याद आती है तुम्हारी माँ की
और मैं फूली न समाई
ह्रदय कुछ गद गद सा हुआ
मामीजी भी बोली मुझे देख
तुम तो साक्षात अपनी मॉं दिखती हो
मन ही मन प्रसन्नता जागी
और मैं इतराई खुद पर
आईना जो देखती हूँ जाकर
झलक उसकी ही सामने आती है
वह मॉं जो छोड़ चली जहाँ को
अपनी ही सूरत में ख़ूबसूरती बन पनपती है
उसकी सूरत बनी मेरा अभिमान
व अनजाना अनकहा स्वाभिमान
उसकी सूरत से ही मिलती मुझे पहचान
वर्ना शायद मेरी हस्ती रह जाती बेनाम
सिकीलधी