विध्वत्व होली

A few widows sitting together in silence at Maitri Ghar Ashram in Vrindavan .
चंदा चमका, मधुबन दमका
आई ऋितु फागुन की
वृंदावन कुछ ऐसा महका
जैसे दुल्हन इतराई सी
मगर वहीं कहीं कुछ माताएँ
क्यों लगती छटपटाई सी
श्याम की वह भी दीवानी हैं मगर
साँवरिया उनके कहीं छूट गए
वक़्त के बेदर्द आक्रोश की मारी
वह जीती हैं जीवन तन्हाई का
पतीदेव के देह त्यागते ही
घर वालों के लिए हो गईं पराई सी
न उनके लिए कोई तीज त्यौहार
भोजन खातीं केवल शुद्ध शाकाहार
विध्वत्व का लगा ऐसा तमाचा
परिवार रहते भी कोई न अपना सा
सूत के वस्त्र ओढ़, सिर के बाल तज
विध्वा आक्ष्रम में रहतीं जग को तज
अब केवल एक आसरा है अपने सलोने श्याम का
माला जपतीं, जिसका प्रत्येक मनसा उसके नाम का
गोपीयॉं वे न सही, सखियॉं बन करेंगी आगमन,
शायद आ थाम लेगा इन विधवाओं का दामन
मोह माया त्याग, रटती उसका नाम रहतीं
फिर क्यों सुनाई न देती उसकी प्यारी बंसी
आया होली का रंगीला त्यौहार
क्या उनका होगा रंगों से साकार
क्या उनके सपनों को मिलेगा आकार
क्या होली खेलने आएगा कोई उन संग
क्या उन पर डालेगा आके कोई रंग
शहर से आते कभी कभार कुछ लोग
लेकर आते वक्तिया कोई उपहार
आश्रम में पल रहीं इन विध्वा माताओं को
कभी कभी कोई जता जाता तंग दिल प्यार
अबकी बार होली पर उनके आने की उम्मीद न रही
क्योंकि इस वर्ष कोविड का पलड़ा है भारी
छटपटा रही हैं यह तन्हा अबला नारी
होली तो है मगर जीवन में नहीं कोई दिलदारी
न गुलाल के निखरे रंग, न प्लाश के फूल
वाह रे दुनिया ये तेरे कैसे अजब से उसूल
जो जननी, बहन व बेटी बन पूजनीय है
वही विध्वत्व का थाम जीवन असहनीय
अपने अक्ष्रू आँचल में लेती छुपा
और हम कहते मॉं ह्रदय में लेती हर ग़म दबा
अपने विधवा होने की सह रही है सज़ा
क्या नई सोच व विक्सित समाज….
देगा इन विधवा माताओं को आदर्नीय जगह
जहॉं घुटन भरी ज़िन्दगी जीना न हो तक्दीर
वे भी रंग लें ख़ुद को छोड़ सफ़ेदी गमगीन
बिखेरे हम आप के संग मिल कर खुशीयॉं
खेलें होली ले हाथों में गुलाल सुर्ख़ व अबीर
रंगों में नहा, अल्हड़ता पहले सी दिखाकर
ज़िन्दगी को जी सकें होली के रंग रंगकर
आपके कविता में मीठी दर्द भी है और चाहत भी है
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Shukriya Nand Kishore Ji.
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