
तितलीयॉं
ओढ़े सफ़ेद लिबास दो तितलियॉ
करती इक दूजे से अठखेलियाँ
पेड़ पतीयॉं, डाली व कलियाँ
बूझ न पाती उनकी पहेलियॉं
कैसी अनोखी ये दो सखियॉं
करती जाने कौन सी बतियॉं
कभी उड़तीं वो डाली डाली
कभी थिरकतीं क्यारी क्यारी
इनकी चुप्पी भरी बेआवाज़ सदाऐं
जाने किस रसिया को लुभाऐं
ख़ामोश दास्ताँ अपने दिल की
जाने किस गुल को ये सुनाएँ
मेरे घर आँगन ये आतीं
मन मेरे को बहला जातीं
मेरे तन्हा वीरान जीवन को
अपनी सफ़ेदी से भी रंग जातीं
गुमशुदा मेरे सपनों को
ज़रा उजागर करने वो आतीं
शायद मेरी मायूसी को
ये दो सखियॉं समझ हैं पाती।।
समझ नही पाते उनके बोल हम,
वे शायद समझते होंगे,
जितना प्यारा दिखते हमें
शायद हमें देख वे भी
तरसते होंगे।
खूबसूरत रचना।👌👌
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👌👌
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Thank you.
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