

है सोच में पंछी प्यारा
किस द्वारे करे पसारा
कभी दाएँ नज़र दौड़ाता
कभी बाएँ निगाह डालता
दाना चुग कर मेरे आँगन
फिर जाने कहॉं को जाता
पंख समेटे, विच्चारबदध है
जाने अब किस का ऑंगन मन भाता
लौट के आना कल फिर से तुम
मेरा जी तुम से ही है लग जाता
तुम भी अकेले, मैं भी तन्हा
तुम ही आ मुझ संग नाता निभाना
ऐ पंछी प्यारे, आना मेरे द्वारे
बाट निहारूँगी कल फिर मेरे प्यारे
जानूँ न किस ठौर तेरा रैन बसेरा
जो जी चाहे तो, यहीं ठिकाना हो जाए तेरा
सिकीलधी
बहुत ही प्यारी कविता। खूबसूरत रचना।
दिल का दर्द,
आंखों की भाषा,
पंछी भी समझते,
बोलते वे भी मगर हम
उनके शब्द नही समझते।
समझती है दरवाजे पर बैठी गाय,
बकरियाँ भी मेरे दर्द
देखना कभी उनकी आंखों में,
मगर उस दर्द को इंसान नही समझते।
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सुंदर भाव।
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सुपर
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