बरसों बरस तू घमंड में जीता है
मैं मैं का राग आलपता है
तेरी इस हरकत से बेबस हो
तब कहीं विधाता याद दिलाता है
तेरी मैं मे तू कुछ भी नहीं
सब कुछ, परम पिता परमात्मा है
तेरी मैं है उसके आगे सूक्ष्म
वह हम सब का दाता है
तेरे महलात व तेरी पहचान
सब है क्षण भंगुर रे एै प्राणी
उसकी एक नज़र के आगे
क्या तेरी औक़ात रे एै प्राणी
तेरी हस्ती की सारी यह मस्ती
घुल के धरती में मिल जाएगी
तेरे बदन की सारी तमतमाहट
इक दिन मिट्टी में मिल जाएगी
अब भी वक़्त रहते सम्भल जा
तज दे फ़ितरत तू निन्दा वाली
प्यार से थाम ले जग का दामन
तुझे निखारेगा वह जग का माली
सब में उसकी झलक तू जान ले
सब हैं उसका रूप यह मान ले
विधाता के खेल को बूझ ले अब तू
न कर हरदम अपनी मनमानी
सिकीलधी
बहुत बढ़िया रचना। उसी की सृष्टि उसी में मिल जाना है। मत कर खेल।
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shukriya
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