आवारा पन्ने

आवारा पन्ने

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आज फिर खुल गए पुरानी यादों की दहलीज़ पे

कुछ पन्ने आवारा से

बहुत चाहा समेट लूँ, बिखरने दूँ उनको

मगर वे बेमुरवत संभाले संभले

कुछ लबों पर कड़वाहट का अहसास दिला कर

और, कुछ अँखियों के झरोखों से बह निकले

 

सोचती हूँ आज क्या हो गया मुझे

क्यों जज़्बातों को समेट सकी मैं आज

शायद वह नब्ज़ दर्द देने वाली

किसी ग़ैर की पकड़ में गई होगी

ज़िक्र छेड़कर मेरे इतिहास के पन्नों का 

उसे कुछ मज़ा शायद आया होगा

 

एैसा लगता है ज्यूँ , चिराग़ तले अांधी ने आकर

बुझा दी वह उम्मीद की रौशनी 

बहा ले गई मेरे दामन से मेरा ही सुकून

जिसे पाला था अब तक बड़ी मुश्किलों से

बस अतीत के कुछ पन्ने उड़ा कर

सब्र का बाँध मेरा हिला कर

 

आशाओं ने ली एक अजब ही कड़वट

खुल गया ख़ामोशी का घूँघट 

ज़ख़्म वही पुराने, अब फिर याद गए

जिन्हें सहेज कर रखा था अब तक

दिल के बहुत ही निचले ताक़ पर

फैल गए वह पन्ने दराज़ से बाहर निकल कर

सिकीलधी

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12 thoughts on “आवारा पन्ने

  1. धन्यवाद। आपने सच कहा साधक जी। हर कवी यही करता है। अहसासों को शब्दों में ढालने का काम है आपका और हमारा।

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    1. नहीं नहीं मैं कवि नहीं मैं बस मन की बातें लिखने की कोशिश करता हूँ, आपकी रचनाओं का संगम बेहद खूबसूरत है जो कि अतुल्य है।🙏

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  2. पुराने दुःख के अक्सर बहुत लम्बे समय तक चुभ कर पीड़ा देते हैं |  आपके शब्दों में दर्द छलकता है | बेहतरीन रचना है आपकी | साधुवाद ! 

    कुछ और भी कहना चाहता हूँ और मेरा ऐसा मानना भी है कि हममें से अधिकतर लोग पीड़ा वाले लमहे कुछ ज्यादा संभाल कर रखते हैं बजाय खुशियों के लम्हों के|  करीब 28/30 वर्ष पूर्व Readers Digest का हिंदी संस्करण आता था “सर्वोत्तम” के नाम से | उसमे एक लेख पढ़ा था : अक्षय घट |  लेखक का प्रयास था खुशनुमा क्षणों की अहमियत बताना और कहना की हम सभी को एक अक्षय घट बनाना चाहिये जिसमे दिन प्रतिदिन के छोटे बड़े खुशियों के लम्हे बटोर कर सहेज कर रखें | 
    इसी मानसिकता से अगर मैं  आपकी कविता का आखिरी पैराग्राफ लिखता तो कुछ कुछ ऐसा सा होता : Just an effort to rhyme my thoughts!
    तभी आशाओं की आई किरणें कुछ नज़र 
    जहाँ अंधकार था गहरा, उजाला रहा पसर 
    कुछ हसीन  क्षण पुराने थे याद आ गये 
    आँखों में थमे आँसू ,लबों पर हँसी दे रहे  
    रखा जिन्हें सहेज तहे दिल,ये थे वही लमहे   
    मधुर यादों की बौछार,संभाले नहीं रही  सम्भले  
    दुःख भी हुवा कुछ कम और मिला बड़ा सम्बल 
    कोसा स्वयं को, क्यों याद आये देर से ये पल 
    फिर एक बार महसूस हुवी अहम ये जरूरत 
    बनाते रहना ताउम्र,हर्ष के क्षणों  का अक्षय घट | 

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    1. आभार।
      अती उत्तम। बेहतरीन लिखा है आपने। कविता का ज़ायक़ा ही बदल ढाला।
      मैं आपसे सहमत हूँ ।

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