हॉं मैं नारी हूँ , अपने हक़ वाली हूँ
जब मैं ने रखा क़दम दहलीज़ के बाहर
तुम ने लगाया मेरे चरित्र पर लांछन
क्या तुम दहलीज़ के अन्दर रहे ?
हॉं मैं बेटी हूँ, तुम्हारी ही जाईं हूं
जब मैं ने रखा दुनिया में पहला क़दम
तुम ने किया ख़ुद क़त्ल मेरा
क्या तुम ने ख़ुद को ही जीने का हक़ दिया?
हॉं मैं अबला हूँ , न बन पाई सबला हूँ
जब जीवन डोर संम्भालनी चाही मैं ने
तुम ने मेरा चीर हरण किया, शोषण किया
क्या तुम्हारा चरित्र फिर पवित्र रहा?
सिकीलधी
बेहदख़ूब रचना 👌👌
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पसंद करने के लिए धन्यवाद
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🙏
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बहुत ही जबरदस्त जवाब। सामाज को आईना दिखाती बहुत ही खूबसूरत रचना।
हॉं मैं नारी हूँ , अपने हक़ वाली हूँ
जब मैं ने रखा क़दम दहलीज़ के बाहर
तुम ने लगाया मेरे चरित्र पर लांछन
क्या तुम दहलीज़ के अन्दर रहे ?
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Thank you for liking the poem and the comment.
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जहरीला सच है यह! सुन्दर पेशकश | तीखा कटाक्ष भी
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शुक्रिया
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👌👍💔छुपा छुपा सा ये दर्द
चुपछुप के बोलता है।
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बेहद खूबसूरत दिल के तारों को छेड़ जाती हुई नज़्म।
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