बादलों के शहर से जो मैं चली
अजब लगी वहाँ की हर एक गली
कभी दिन दहाड़े मिलता अन्धियारा
कभी रातों में भी लगता उजियारा
कहीं क़दम रखते ही मैं फिसलती
कहीं ऊँची उड़ान सी ले मैं उचकती
कोई बदली छन छन कर बिखरती
कोई घनी चहुँ ओर जा पसरती
पर्वतों की मानिंद कोई ऊँचाई दिखती
वहीं गहरी निशा सी चादर सी झुकती
बादलों के शहर के घर भी अलग से
कभी बसती संग होते, कभी तन्हा रहते
कहीं गरज घनघोर आकाश को चीरती
कहीं बिजली का आलिंगन सा ले लेती
एक पल लगता मैं हवा पर चलती
अगले क्षण ओस की बूँदों पे सरकती
कोई बादल मटमैला, कोई राग सुनाता
और कोई बादल चाँद को जा पकड़ता
बादलों के शहर का अत्यंत अजब चहरा
कभी पवित्र उज्जवल, कभी स्याहवर्ण
कोई बादल गरज फिर बारिश बरसाता
कोई हल्की बूँदों से रोमांचक ऋतु लाता
अपने होंठों से चूमता पेड़ पौधों को
बादल दिन प्रतिदिन नहला कर जाता
ममतामयी बादल हर प्राणीं पर जल छिड़का
देख भाल दूर देस से निष्पक्ष रूप से करता
बादलों के शहर की अनोखी सी कई बातें
अचरज लगतीं पर बहुत पहचानी सी लगती
कभी यह बादल पंख फैलाए उड़ते घूमते
कभी नदिया की भाँति से धारा में बहते
स्नेह चुम्बन दे सूखी धरती को प्रेम वश
अश्रु छलका अपने हरियाली भेंट कर जाते
जब जी जैसा होता हो इनका
उसी प्रकार का भेस वे जा बदलते
कभी नभ में कोई हाथी घोड़ा सा दिखता
कभी साईं बाबा या शिव जी का रूप झलकता
कितने ही प्रेमी चाँद सितारे बिसरा कर
इन बादलों को तकते रहते निहारते।
सिकीलधी
कोई बादल शेर जैसा कोई हाथी जैसा तो कोई विशालकाय दैत्य की तरह दिखते।
बादलों की दुनियाँ भी अजीब है। खूबसूरत रचना।👌👌
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