अपनी वसीयत में कुछ एैसा
नाम मेरे गर तुम कर जाती
एैसा धन मुझे दे जाती
जिसका मोल मैं लगा न पाती
वह मीठी मुस्कान तुम्हारी
दुखियों का थी दुख हर जाती
अब काश वही मुस्कान एै मॉं
आज मैं अपने लब पर पाती
वह सब्रशीलता सहज तुम्हारी
काश मैं भी तुमसी पा जाती
जैसे जज़्बातों पर क़ाबू रख कर
तुम स्वयं को व्यस्त कर जाती
बदरंग दुनिया के बेरस चेहरे
जाने कैसे थी तुम झेल पाती
राज़ यह ख़ास अपनी शख़्सियत का
काश तुम मुझे सिखला कर जाती
एैसी ही वसीयत तुम्हारी
यदि आज मुझे मिल जाती
जीवन जीने का सलीक़ा मॉं
तुम जैसा मैं भी जी जाती
सिकीलधी
बहुत ही खूबसूरत कविता।
जबतक माँ होती है अपना सबकुछ दे देती है।
जीने का सलीका पग पग सिखला देती है।
लल्ली मेरे चलना कदम धीरे धीरे,
दुनियाँ में रखना कदम धीरे धीरे,
लल्ली मेरे चलना कदम धीरे धीरे।
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धन्यवाद जनाब। क्या ख़ूब दिया जवाब।
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Swagat apka.
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Please read my first post
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माँ अनमोल हैं ,बहुत सुन्दर अभिव्यत किया है ।
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Dhanyavaad Ji. Maa anmol hain, hum apse sehmat hain.
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🙂🙏🏻
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