तुम जो देख पाती
कितना अच्छा होता मॉं
तुम जो देख पाती
मिल कर बैठा परिवार तुम्हारा
एक जुट सगरी बनी परछाईं
एक ही ऑंगन में मिल बैठे
हम भाई बहन सब ख़ुश हो कर
न कोई शिकायत, न आँख में पानी
हँसते खेलते एक दूजे संग
मौसम में ज्यूँ आई हो रवानी
रंगत नई लिए महक सुहानी
मॉं इतना घुला मिला परिवार तुम्हारा
काश कि आज तुम भी देख सकती
गर्व से चौड़ा सीना हो जाता
और थम जाती वह पीड़ा पुरानी
मरहम तुम्हारे उन ज़ख़्मों पर
ऐ काश तब मैं ही रख पाती
चलाना वह कर जाना तुम्हारा
सिखा गया हमें साथ निभाना
देर सही हो गई बहुतेरी
रिश्तों ने सम्भाली पकड़ पुरानी
नया बना परिवार का मुखिया
चाहता न रहे कोई घर में दुखिया
मेल मिलाप बढा़या फिर से
कहता हर कोई रहे सुखिया
अहसान करूँ मैं उस मालिक का
इस दुनिया पूरी के ख़ालिक़ का
सुख दुख देकर खेल जो खेलता
एक पल रुला दूजे पल बहलाता
अजब बनाई दुनिया उसने
अपनों को अपनाया है उसनें
हम तुम रूठते, बिगड़ते फिर संवरते
अपनेपन की देते आज दुहाई
कितना अच्छा होता मॉं
तुम जो देख पाती
सिकीलधी
khubsurat rachna.👌👌
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Dhanyavaad Madhusudan Ji. I like your poetry as well – it comes from the heart.
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sukriya apka.
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